धर्म का फल संसार के बंधनों से मुक्ति : शंकराचार्य

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प्रयागराज।

अर्ध कुम्भ प्रयागराज के पावन अवसर पर आज सेक्टर 5 पुरानी जीटी मार्ग स्थित महोमहापाध्याय पं0 देवेन्द्र मिश्र जी के शिविर में चल रही श्रीमद्भागवत महाप्राण कथा में श्री काशी सुमेरु पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने उपस्थित श्रद्धालुओं को अपना आशीर्वचन प्रदान करते हुए कहा कि शास्त्रों में पुराणों की बड़ी महिमा है। उन्हें साक्षात श्री हरि का रूप बताया गया है।जिस प्रकार संपूर्ण जगत को आलोकित करने के लिए भगवान सूर्यरूप में प्रकट होकर हमारे बाहरी अंधकार को नष्ट करते हैं, उसी प्रकार हमारे हृदयान्धकार-भीतरी अंधकार को दूर करने के लिए श्रीहरि ही पुराण-विग्रह धारण करते हैं।
“यथा सूर्यवपुर्भूत्वा प्रकाशीय चरेद्धरि: |
सर्वेषां जगतामेव हरिरालोकहेतवे ||
तथैवान्त:प्रकाशाय पुराणावयवो हरि: |
विचरेदिह भूतेषु पुराणं पावनम् परम् ||”
धर्म का फल है संसार के बंधनों से मुक्ति, भगवान् की प्राप्ति। उससे यदि कुछ सांसारिक सम्पत्ति उपार्जन कर ली तो यह उसकी कोई सफलता नहीं है।इसी प्रकार धन का फल है-एकमात्र धर्म का अनुष्ठान, वह न करके यदि कुछ भोग की सामग्री एकत्र कर ली, तो यह कोई लाभ की बात नहीं है।
भोग की सामग्रियों का भी यह लाभ नहीं है कि उनसे इंद्रियों को तृप्त किया जाए, जितने भोगों से जीवन निर्वाह हो जाए, उतने ही भोग हमारे लिए पर्याप्त हैं तथा जीवन-निर्वाह का—-जीवित रहने का फल यह नहीं है कि अनेक प्रकार के कर्मों के पचड़े में पड़ कर इसलोक या परलोक का सांसारिक सुख प्राप्त किया जाय। उसका परम लाभ तो यह है कि वास्तविक तत्व को—भगवत तत्व को जानने की शुद्ध इच्छा हो।
यह तत्व-जिज्ञासा पुराणों के श्रवण से भलीभांति जगाई जा सकती है। इतना ही नहीं, सारे साधनों का फल है-भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करना। यह भगवत्प्रीति भी पुराणों के श्रवण से सहज में ही प्राप्त की जा सकती है।
इसलिए यदि भगवान को प्रसन्न करने का मन में संकल्प हो तो सभी मनुष्यों को निरन्तर श्रीकृष्ण के अंगभूत पुराणों का श्रवण करना चाहिए।
वेदों की भाँति पुराण भी हमारे यहाँ अनादि माने गए हैं। उनका कोई रचयिता नहीं है। सृष्टि कर्ता ब्रह्माजी भी उनका स्मरण ही करते हैं। पद्म पुराण में लिखा है—
“पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् ।
अपना आशीर्वचन प्रदान करते हुए पूज्य जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने आयोजकों को उनके यज्ञ की सफलता के साथ-साथ उनके मनोरथ के पूर्ण होने का आशिर्वाद भी प्रदान किया।

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