हल्द्वानी। अनीता रावत
यह ऐसा पर्यावरण मित्र है जो धरती को शुद्ध और बीमारी युक्त रखने के लिए न सिर्फ जानवरों की हड्डियां तक खा जाता है बल्कि हैजा और एंथ्रेक्स के जीवाणुओं को भी पचा जाता है। लेकिन अब यह खुद ही संकट ग्रस्त हो गया है। जी हां, बात कर रहे हैं लुप्त हो रही गिद्धों की प्रजाति की। वैज्ञानिकों को दावा है कि गिद्ध न सिफ मरे हुए मवेशियों, पशुओं व प्राणियों के मांस, हड्डी आदि का भोजन कर प्रकृति को स्वच्छ रखने में अपना योगदान देते हैं। बल्कि बियर्डेड वल्चर 70 से 90 प्रतिशत तक हड्डियों को भी अपना आहार बनाता है। यही नहीं अन्य वल्चर के पेट का अम्ल उन चीजों से भी पोषक तत्व ले सकते हैं, जिसे दूसरे वन्य जीव आधा खाकर छोड़ देते हैं। गिद्धों के पेट का अम्ल इतना शक्तिशाली होता है कि वो हैजा और एंथ्रेक्स के जीवाणुओं को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है।
वन्य कर्मियों और वॉचिंग दल का दावा है कि उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के जंगलों में संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल सात तरह के गिद्ध दिखाई दिए। बताया जा रहा है कि 1990 में संकटग्रस्त घोषित बियर्डेड इजिप्शियन वल्चर का पिथौरागढ़ से सटे जंगलों में दिखाई देने प्रर्यावरण के लिए सुखद है। व्हाइट रंप वल्चर नाकोट क्षेत्र में और हिमालयन ग्रिफॉन वल्चर झूलाघाट क्षेत्र के जंगलों में यह वल्चर दिखे हैं। इसके अलावा नाकोट क्षेत्र के जंगल में ही रेड हेडेड वल्चर, कालामुनि क्षेत्र के जंगलों में सिनेरियस वल्चर भी दिखाई दिये हैं। बेहद संकटग्रस्त प्रजाति के इन वल्चर के सीमांत के जंगलों में बसेरा करने से पक्षी प्रेमी एवं बर्ड वॉचिंग दल के सदस्य इसे वल्चर प्रजाति के वजूद के साथ ही प्रकृति के लिए भी सुखद मान रहे हैं। आंकड़ों की माने तो नब्बे के दशक में वल्चर की विभिन्न प्रजातियां 97 से 99 प्रतिशत तक खत्म हो गई थीं। मवेशियों के जोड़ों के दर्द को मिटाने में डाइक्लोफिनॅक प्राय: दवा खिलाई जाती थी, जब यह दवा खाया हुआ मवेशी दम तोड़ देता था, तो इसके शव को नोंचकर खाने वाले गिद्धों के गुर्दों पर प्रतिकूल असर पड़ता था। ऐसे मवेशी का मांस खा-खाकर धीरे-धीरे गिद्ध मरने शुरू हो गए थे। नतीजतन, गिद्धों के वजूद पर ही संकट छा गया। अब मवेशियों के लिए नई दर्द निवारक मॅलॉक्सिकॅम दवा आ गई है। ये दवा खाये मवेशी के शव का मांस नोंचने पर यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं पायी गई है।