हल्द्वानी। अनीता रावत
उत्तराखंड के रैंणी गांव के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। चमोली जिले के इस गांव में विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि इस गांव के लोगों को यदि बचाना है तो उन्हें वहां से अन्यत्र स्थानांतरित करना होगा। अब तक आ चुके दर्जनों भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ से गांव स्थानीय निवासीयों के लिए खतरनाक बन चुका है।
अलकनंदा नदी पर हिमस्खलन एवं एक ग्लेशियर के टूटने के बाद विगत 7 फरवरी को रैंणी गांव में अचानक भारी बाढ़ आ गई थी। इससे क्षेत्र में भारी तबाही मची। लेकिन यह सिलसिला यही नहीं थमा। 14 जून को फिर क्षेत्र में अचानक भारी बारिश के कारण बाढ़ आ गई। कई घरों को नुकसान पहुंचा जिससे ग्रामीणों में दहशत फैल गई। रैंणी गांव के नीचे जोशीमठ-मलारी मार्ग का एक बड़ा हिस्सा धंस गया जिससे चमोली जिले के एक दर्जन से अधिक गांवों से संपर्क टूट गया। प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे रैंणी गांव के लोगों ने वहां से स्थानांतरित किए जाने की मांग रखी। इसके बाद उत्तराखंड सरकार के भूगर्भ वैज्ञानिकों की एक टीम ने भी स्थिति का आकलन किया और रिपोर्ट सरकार को सौंपी। राज्य के आपदा प्रबंधन अधिकारी नंद किशोर जोशी के अनुसार रैंणी गांव के निचले हिस्से में 55 परिवार रहते हैं लेकिन वह जगह अब इंसानों के रहने लायक नहीं है। इन्हें सुभाई गांव में बसाने का फैसला लिया गया है। पर्यावरण पर कार्यरत क्लाईमेट ट्रेंड्स की एक रिपोर्ट के अनुसार चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी की प्रतिमा को हाल में रैंणी गांव से हटाकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया है। यह घटना हमारे ऊपर मंडरा रहे आसन्न जलवायु खतरे को इंगित करती है। रैंणी गांव समुद्र तल से 3700 मीटर की ऊंचाई पर ऋषिगंगा नदी के ढलान पर स्थिति है। यही से 1973 विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। राष्ट्रीय वन संरक्षण कानून भी इसी आंदोलन के बाद पारित हुआ।