नई दिल्ली, देव।
सुप्रीम कोर्ट ने जाति के आधार पर कैदियों को काम आवंटित करने के नियम को असंवैधानिक करार दिया। गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसले में राज्यों की जेल नियमावली के भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खारिज करते कहा कि देश की किसी भी जेल में किसी तरह का जातिगत भेदभाव नहीं किया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने यह फैसला सुनाया। उन्होंने कहा, जेल मैनुअल में इस तरह के भेदभाव को बढ़ावा देने वाले सभी मौजूदा प्रावधानों को खत्म किया जाना चाहिए। साथ ही जाति के आधार पर काम के बंटवारे और कैदियों को अलग वार्डों में रखने के चलन की निंदा भी की।
पीठ ने महाराष्ट्र के कल्याण की मूल निवासी सुकन्या शांता द्वारा दायर याचिका पर फैसला सुनाया। उनकी याचिका में आरोप लगाया गया था कि देश के कुछ राज्यों के जेल मैनुअल जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल जनवरी में दायर याचिका पर केंद्र, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित 11 राज्यों से जवाब मांगा था। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा, केंद्र सरकार के जेल मैनुअल 2016 में खामियां हैं। इसमें जातिगत पदानुक्रम के आधार पर कैदियों के बीच शारीरिक श्रम का वितरण भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है। शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया कि कैदियों को खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंक की सफाई करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि ये प्रथाएं औपनिवेशिक काल की हैं और इनमें से अधिकांश कानून ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए गए थे। पीठ ने कहा, अगर अनुच्छेद 23 (मानव तस्करी और जबरन श्रम का निषेध) का उल्लंघन निजी व्यक्तियों द्वारा किया जा रहा है तो राज्य को उत्तरदायी ठहराया जाएगा। कैदियों से अमानवीय काम नहीं करवाया जा सकता और उनके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा जाति आधारित भेदभाव के प्रति घृणा, अवमानना और ऐसी जातियों के प्रति व्यापक पूर्वाग्रह नहीं रखा जा सकता। अपने फैसले में पीठ ने कहा, समाज में हाशिए पर पड़े लोगों को सफाई और झाड़ू लगाने का काम और ऊंची जाति के लोगों को खाना पकाने का काम सौंपना संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। पीठ ने अपने आदेश में कहा, ऐसे अप्रत्यक्ष वाक्यांशों का इस्तेमाल जो तथाकथित निचली जातियों को निशाना बनाते हैं, हमारे संवैधानिक ढांचे के भीतर नहीं किया जा सकता है। जेल मैन्युअल केवल इस तरह के भेदभाव की पुष्टि कर रही है। पीठ ने जेलों के अंदर भेदभाव के कथित मामले में स्वत: संज्ञान मामला दर्ज किया और शीर्ष अदालत की रजिस्ट्रार को इस मामले को सुनवाई के लिए तीन माह बाद सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया। साथ ही सभी राज्यों को भी तीन महीने के भीतर नियमों में संशोधन करने का निर्देश दिया। सर्वोच्य न्यायालय ने जोर देते हुए कहा कि न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि हाशिए पर पड़े लोगों को तकलीफ न हो। निश्चित वर्ग के कैदियों को जेलों में काम के उचित बंटवारे का अधिकार है। अदालत ने माना कि संविधान अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति को सुरक्षात्मक भेदभाव के लिए मान्यता देता है, लेकिन जाति का इस्तेमाल हाशिए पर पड़े लोगों के साथ भेदभाव करने के लिए नहीं किया जा सकता है।